- स्वर्णिम सक्सेना
सिनेमाघर
यह एक ऐसी जगह है जहां भावनाओं का अंबार समय-समय पर लगता है| लोग पर्दे पर चल रहे दृश्य को देखकर हंसते हैं, रोते हैं तालियां व सीटियां बजाते हैं।
भारत के सिनेमाघर भी अब प्रगति के साथ आगे बढ़ रहे हैं और अब हम केवल 2D तक सीमित नहीं हैं | अब 3D, 3DX आईमैक्स 3D तथा कहीं-कहीं पर 4dx भी देखा जा सकता है| यह तकनीक दर्शकों को एक ऐसा अनुभव करवाती हैं जिससे ऐसा लगता है कि वास्तविकता में वे वहां पर मौजूद हैं| भारत में फिल्में देखने का एहसास सिनेमाघर के जरिए बदल रहा है।
टॉकीज से मल्टीप्लेक्स
मूक फिल्मों के बाद बोलती फिल्में आई टॉकीज कहा गया ‘टॉकीज’ का मतलब जहां बोलती फिल्मों का प्रदर्शन हो| धीरे-धीरे इसमें विस्तार हुआ जहां दर्शक बढ़े और फिल्में भी 12 से 3, 3 से 6, 6 से 9 और 9 से 12 के समय में प्रदर्शित की जाने लगीं|
फिल्मों ने लोगों में दिलों में बनाई जगह
70 के दशक से एक ऐसा दौर भी आया था जब फिल्मों की दीवानगी गली मोहल्ले चौक-चौराहे और पान की दुकान से लेकर लोगों के मन मस्तिष्क पर थी| ऐसी कई फिल्में भी हैं जिनके गाने और डायलॉग सुपरहिट साबित हुए| वो आज तक लोगो के दिमाग में हैं | कई किरदारों की लोग हूबहू नकल उतारने की भी कोशिश करते थे जहाँ से मिमिक्री की भी शुरुआत हुई|
उदहारण के तौर पर जब ‘तेरे नाम’ फिल्म रिलीज हुई तब अधिकतर पुरुषों के हेयर स्टाइल राधे मोहन के जैसे हो रहे थे । घायल, घातक, गदर ऐसी फिल्में जिनके डायलॉग सुपरहिट साबित हुए| कुछ फिल्मों ने तो उस समय के उभरते हुए कलाकारों को रातों-रात फिल्मी दुनिया का सितारा बना दिया।
खैर, अब दौर बदल चुका है| सिंगल स्क्रीन से मल्टीप्लेक्स के सफ़र में भारत ने फ़िल्म जगत में काफी उन्नति की है।
मल्टीप्लेक्स जहाँ सिनेमा चेन कंपनी के मालिक अपने यहां कि सुविधा साफ-सफाई बेहतर पिक्चर व साउंड क्वालिटी, आरामदायक कुर्सियां और परिवार अनुकूलित वातावरण पर ज्यादा जोर देते हैं।
मल्टीप्लेक्स के दौर में टिकटों की दरों में इजाफा देखा जा सकता है| जहां 90 से 2000 के दशक में टिकट दर 50 रूपए से 100 रूपए के बीच रहती थी, वहीँ आजकल औसतन प्रति व्यक्ति 250 रूपए से 300 रूपए तक देखी जा सकती है|
हां, पहले कुछ ऐसे सिनेमा भी होते थे जो ख़ास अपनी कैंटीन के लिए मशहूर थे। मगर मल्टीप्लेक्स के दौर में समोसे कोल्डड्रिंक तथा अन्य खाद्य पदार्थों के दाम भी बढ़ चुके हैं। एक मध्यमवर्गीय परिवार को फिल्म देखने जाने से पहले 10 बार सोचना पड़ता है।
पहले की फिल्मों से कलेक्शन के मामले में तुलना ठीक नहीं
आज के दौर में फिल्मों का पोस्टर और उसके तथ्य साथ ही लोगों का रिएक्शन सोशल मीडिया के माध्यम से दुनियाभर में पहुंच जाता है| वहीँ कुछ जानकार आज की फिल्मों के कलेक्शन को 20 साल पुरानी फिल्मों से जोड़ने की कोशिश करते हैं और तुलना करके दिखाते हैं कि यह पुराना रिकॉर्ड टूट चुका है जबकि पहले फिल्म केवल वर्ल्ड ऑफ माउथ पर ही चलती थी तब आज के जितनी आधुनिकता नहीं थी| उस समय फिल्मों के प्रमोशन की प्रथा भी कम थी ।
‘हम आपके हैं कौन’ पहली ऐसी फिल्म थी जिसका वर्ल्ड वाइड कलेक्शन ढाई सौ करोड़ के पार था उसकी तुलना आज के समय की फिल्मों से करना ठीक नहीं क्योंकि उस समय टिकट के दर काफी कम थे।
2 करोड में ‘मैंने प्यार किया’ बन के तैयार थी जिसका कलेक्शन 24 करोड़ के करीब था । वहीँ आज एक फ़िल्म का औसत बजट 15 – 20 से करोड़ रूपए तो रहता ही है, उसके बाद एड और प्रोमोशन पर अलग खर्च होता है। तब टिकट बुकिंग को लेकर ऑनलाइन सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी जिससे टिकटों के ब्लैक मार्केटिंग का चलन भी खूब था।
फिल्में समाज का आईना होती हैं सिनेमा के रूप और रंग भले ही बदल गए हो मगर दर्शकों पर उनका प्रभाव अभी भी बना हुआ है। चारदीवारी से बना सिनेमाघर 1 दिन में भावना के हजारों रंग अपने अंदर समेट लेता है और यह सिलसिला चलता रहता है क्योंकि ‘द शो मस्ट गो ऑन’|